इताबे बेरुख़ी

कहने को तो हबीब थे मेरे
पासबाँ भी तुम्ही थे
सदा संग रूए-सहर देखी
फिर भी दरमियां फ़ासले थे वहाँ..
हर लम्हा तन्हा ग़ुज़रा
गुफ़्तगू ख़ामोशियों से की
आँख भर देखा न कभी
ख़लवते आलम था वहाँ..
लाख चाहा ज़हन में हो तुम्ही
इक दूरी तुमने बनाई रखी
दस्तूरे उल्फ़त निभाए न कभी
गुज़ारिश यही तहे दिल थी वहाँ..
ज़िंदगी तुम मिली भी तो
नक्शे क़दम ऍसे छोड़े
ज़िंदानशीं क़फ़स में फड़फड़ाए
इन्तहाए बेरुख़ी सरे आम थी वहाँ….

नज़्म–वीना विज ‘उदित’

इताबे-ज़ुल्म, हबीब-दोस्त, पासबाँ-रखवाला, रूए सहर-सुबह का चेहरा, गुफ़्तगू-बातचीत, ख़लवते-तन्हाई,
ज़िन्दानशीं-कैदी, क़फ़स-पिंजरा,

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