ग़ज़ल—रक़ीबों की चाह

मग़रिब से आती हवाओं के रुख़ से
ज़िंदगी-ए-आम डगमगाने लगी है |
हाक़िम ख़ुद क़ज़ा की दवा देते हैं सुन
कफ़स में कैद रूहें फडफडाने लगी हैं |
आँधियों को गुलिस्ताँ में पनाह देने से
सिली-सिली शबनम भी गर्माने लगी है |
तंग आ चुके हैं ख़तो-खिताबत से
वस्ले यार मेरा सब्र आज़माने लगी है |
आशिकी में लरज़ते हैं अरमां ऍसे
इश्क की रोशनाई चमचमाने लगी है |
तेरी हबीबी की शिद्दत के सदके ‘वीणा’
रस्में उल्फ़त रक़ीबों की चाह जगाने लगी है ||

वीणा विज ‘उदित’

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