साझी

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सृष्टि एक समष्टि है,अतःमानव की संरचना स्वतन्त्र और अभिव्यक्त कर्म है ।पंचभूतों में प्राणप्रतिष्ठा सृष्टि का एक अद्वितीय चमत्कार है ।कर्मों के लेखे जोखे ही पुनर्जन्म  सुनिश्चित करते हैं । वही आत्मा नवीन देह में प्रविष्ट होकर भी जब विगत जन्म की  स्मृतियाँ किसी कारणवश सभ्य समाज के सम्मुख लाती है तो अचंभित  कर देती है ।हमारे शास्त्रों में तभी कहा जाता है कि” आत्मा चोला बदलती है ”  (नया जन्म, नया तन और नया नाम पाकर ) कुछ ऐसी ही धारणाएं डा. ब्रायन वैस की किताब” Many Lives,Many Masters” ,पढ़ने पर जन्म -जन्मान्तर के आपस में संबंधित होने पर अटूट विश्वास पैदा करती हैं । “मृत्यु ” जीवन का अंत नहीं वरन् एक और नए जन्म का प्रादुर्भाव है । डा. जिम बी टकर की “Life Before Life “पढ़ने के पश्चात् तो कृत्य का कारण समझ आ जाता है ।प्रस्तुत कहानी इसी धारणा को समेटे है:-

” अरेss  बापू! तनिक हाथ तो दबाई के पकड़ो । हम छूटे जात है न !”  दस-ग्यारह  बरस की तारा , जिसने अपने बाएं हाथ में छुटपुट सामान का झोला पकड़ रखा था और दाएँ हाथ को पिता के हाथ में दिया हुआ था कस के पकड़ने के लिए ,भीड़ से घबराकर अपने बापू से कह रही थी ।और दोनों सतना से कटनी होते हुए जबलपुर (बुआ के घर न्यौता खाने )  जाने को राज्यपरिवहन की एक्सप्रेस बस में आराम से बैठ गए ।  थोड़ी देर में ही बस चल पड़ी । बस के चलने पर तारा के उत्साह का ठिकाना न रहा ।अपने होश में पहली बार वो प्रकृति को अपने संग दौड़ते देख रही थी । लोगों की भीड़ और शहर पीछे छूट रहे थे और  वह विजयी बनी आत्मविश्वास से मंद -मंद मुस्कुरा रही थी । लौटकर संगी साथियों को वह अपने अनुभव सुनाकर अचंभित कर देगी ।सो , चेहरा खिला जा रहा था  कि धचक से बस रुक गई ।
”  बोल शारदा मैया की जय ”  के नारे गूंजने लगे ।उसने भी बापू और अन्य लोगों का अनुसरण करते हुए बस से बाहर निकल पहाड़ को चोटी पर स्थित शारदा माता के मंदिर की और देख कर प्रणाम किया । वो हैरान थी देख कर कि नीचे ज़मीन से लेकर मैया के मंदिर तक पूरे पहाड़ पर सीढ़ियों का रास्ता बना था । कि तभी बस का कंडक्टर भोंपू बजाकर चिल्लाया, ” बस जाए को है , सबै लोग आवा भीतर । ई स्टापज थोरे ही है भैया ! माई को परनाम किए बिना कैसे आगे जाए का है न ! जो कुछ खाए-पीए का है , तो कटनी माँ बीस मिनट का स्टॉपेज है । हुआँ  ले लेना । (ड्राइवर से) चला डीराइवर भाई !” और बस चल पड़ी । आगे कैमोर सीमेंट फैक्ट्री आई, पर बस नहीं रुकी । सड़क किनारे खेत -खलिहान , झोपड़ियाँ और वहां ग़रीब (बिन कपड़ों के )बच्चे लाल मिट्टी से सने खेलते दिख रहे थे । लाल मिट्टी ( बॉक्साइड) की खदानें उस जगह होने से सड़क किनारे  पेड़ों की हरियाली ने भी लाल मिट्टी की तहे ओढ़ रखी थीं । मानो हवा ने लाल मिट्टी से क़रार कर रखा था कि वो उसे वहाँ आने वाले हर जन तक पहुंचाएगी । दूर -दूर ईटों के भट्टे , और काम करती रेजा (औरत मज़दूर )और मज़दूर भी दिख रहे थे । सो , लाल मिट्टी से सना मझगवाँ गाँव निकला तो आगे
कटनी नदी का पुल पार करते ही बस जा कर कटनी जंक्शन पर रुकी।
…कटनी का बस स्टॉप उन दिनों मिशन स्कूल से थोड़ा आगे जाकर था । पान, बीड़ी, तम्बाखू ,सिगरेट के स्टॉल और आगे चाय ,भजिया ,समोसे ,आलुबंडे और पूरी-भाजी की दूकानें थीं ।किसी किसी ने आगे बंटे वाली कांच की हरी बोतलें और लेमन (लाल ,पीली) भी बर्फ़ कूट कर बोरी में लगा रखी थीं । देखते ही देखते बस खाली हो गई । और दुकानें गाहकों से भर गईं  । बिहारी बाबू भी तारा को लेकर नीचे उतरे और पूछने लगे ,” बिटिया ! कुछ खाए का है?(झोले से कुछ निकाल कर) ई लो मठरी! तोहार माई साथ दिए रही ।”  तारा गर्दन ऊँची करके इधर -उधर ताके  जा रही थी । गम-सुम खड़ी जैसे कुछ भी नहीं सुन रही हो । यह देख बिहारी बाबू के मन में कुछ ख़्याल आया कि  बेटी घर से बाहर घूमने आई है तो कुछ बढ़िया खिलाना चाहिए इसे । सो बोले, ” तनिक हियाँ ठहरौब  , हम अबहुँ आवत हैं ।”और वे पत्ते के दोने में समोसा और उसके ऊपर इमली की चटनी डलवाकर ले आए ।बोले,” लियो बिटिया ! ई समोसा खा लो । विहान के चले हैं , ई तोहार पेट कछु मांगत है की नाहीं ?”
…तारा मानो कुछ भी नहीं देख रही थी और न ही सुन रही थी । किसी अदृश्य शक्ति के वश में हो वह एकदम  हर्षविह्वल होकर जोर से चिल्लाई,  ” अरे ! यहीं तो हमार घर है “। यह सुन बिहारी बाबू सकपका गए ।  उसे समझाने लगे ,” क्या कहत हो बिटिया ! आपुन घर तो सतना में हई । चलो कछु खा लो , भूख से बिलबिला गई जान पड़त हौ “। वह उनका हाथ झटक के बोली , ” नई बापू ! चला हमार संग । तोहे बड़के अउर मंझले भैया ,भौजाइयन और ओके बच्चे ,सबहूँ से मिलाइबै ।” हैरान और परेशान बापू ने उसके दोनों कंधे पकड़कर  वहीँ बिछी बैंच पर बिठाया और दोना देते हुए डाँटकर बोले, ” लो पकड़ो दोना और ई खाओ । अनाप -शनाप मतई बोलो । बस चले को है , बकत खोटी मत ही करो ।” लेकिन तारा बापू के दोनों हाथ हटाते हुए जोर से चीखी, ” बापू ! सुनत काहे नहीं हो ? चला हमार साथ, हम तोहे ले चलबै ।” अब तक काफ़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी । पास के दुकानदार भी बोले कि अपनी बिटिया की बात मान लो भैया । बस तो जा चुकी थी । बिहारी बाबू ने उसकी ज़िद्द के आगे
हथियार डाल दिए । और कोई चारा भी नहीं था ।
…तारा आगे-आगे  रेल्वे पुल के ऊपर से रेल लाइन पार कर के भट्टामोहल्ला की ओर बढ़ रही थी । बिहारी बाबू उसका हाथ पकड़ कर उसके साथ चलने के यत्न में कभी झोला तो कभी धोती संभाल रहे थे ।पीछे जनता का हजूम था । और जनता जनार्दन बढ़ती ही जा रही थी । कि अचानक तारा ने अपना हाथ छुड़ाया और आर्डिनेंस फैक्ट्री  की सड़क.पर ऐसी भागी मानो उसे रास्ता मालूम हो । तक़रीबन दो फ़र्लांग पर मालगुजार चतुर्वेदी जी की बड़ी आलीशान हवेली थी उसी रोड पर । पुराने रईस थे , शहर में रूतबा था । तारा अति उत्साहित हो रुक गई । उस दिशा में इंगित कर बापू को हवेली दिखाते हुए बोली ,”  ऊ देखो बापू !ओ रहा हमार घर !” इतना सुनना था कि भोड़ में से जो लोग हवेली बालों को जानते थे ,.वे हवेली की और सरपट भागे और वहाँ जाकर शोर मचा दिया कि  बाहर आओ और देखो तुम्हारे घर कौन आई है ।  शोर सुनकर हवेली के लठैत, सेवक और नौकर -चाकर बाहर आ गए । तभी तारा भो बापू को लिए गेट के भीतर चली आई ।पीछे भीड़ भी  खड़ी हो गई । तारा अधिकार पूर्वक भीतर की ओर बढ़ी तभी एक मोटे से लठैत ने लाठी आगे कर के उसे रोकना चाहा तो
उसको  हैरान करती  तारा ने लाठी हटाकर बड़े आराम से उससे पूछा,” काहे दिनु भैया मजे मां हो?  तोहार महतारी  अभी भी खाट पकडे है का ? बाल -बच्चन कइसन हैं ?” यह सुनते ही दीनू अवाक् रह गया । वह लाठी पकड़ छोटी सी लड़की को आँखे फ़ाड़े टुकुर-टुकुर निहारने लगा । मानो उसने कोई भूत देख लिया हो । उसके हाथ काँपने लगे ।सभी इस तमाशे को देख हैरान व् उत्सुक थे कि देखें आगे क्या होता है !! दीनू बुदबुदा रहा था ,” ई कइसन हो सख्त है ? ई  बित्ता भर मोड़ी (लड़की) के मुँह से सतिया बुआ बोल रही हैं। ऊ को सिधारे तो 10-11 बरस हुई गवा है । (बिहारो बाबू से बोला) तनिक ठहरब भैया ,हम मालिक को बुलाए लात हैं भीतर से ।” बिहारी बाबू तो स्वयं  ही सकते की हालत में थे । वे भी बुदबुदा रहे थे ,” हे सारदा मैया ! हे नर्बदा मैया ! हमार मोड़ी की रक्छा करौ !!”
…पलक झपकते ही बाहर हवेली की दालान में घर के सब मर्द और धोती के पल्लू से मुँह ढाँपे सब औरतें इकट्ठे हो गए । उन सब को देखते ही तारा भागी गई और “बड़के” कहकर घर के बड़े चतुर्वेदी जी से लिपट कर रोने लगी । जैसे बरसों बाद मिली हो ।
वो भो घबरा कर बोले ,” कौन हो बिटिया ?
इस पर तारा बोली,” काहे,  बिसरा दिए हो मोहे? चीन्हे (पहचाने ) नहीं हो का ? हम हैं तोहार सतिया दिदिया ! (फिर दूसरे मर्द को ) तनिक मुटा गए हो मंझले !  (फिर जाकर उससे भी लिपट गई ) कइसन हो भैया?
सभी बोले कि क्या कह रही है यह लड़की ? सतिया दिदिया को मरे तो ग्यारह बरस होने को आए हैं । कैसे विश्वास करें इस की बातों पर ?
तब तक तारा बड़ी और छोटी दोनों भाभियों से गले लग कर मिली और एक -एक बच्चे का नाम ले लेकर हाल पूछा । वे दोनों तो इतने से ही अभिभूत हो गईं ।और रोने लगीं । उठकर
आईं और बोलीं, “पाँव लागू दिदिया !” और तारा ने प्रत्युत्तर में ,”दूधो नहाओ ,पूतो फलो “का आशीर्वाद दिया । हालांकि छोटी सी लड़की को ऐसा करते देखकर किसी को यह तर्कसंगत नहीं लग रहा था । बड़के चतुर्वेदी जी ने बिहारी बाबू को बैठक में बिठाया और उनसे तारा के विषय में पूछा । वे अचंभित हो रहे थे यह  जानकर कि वे पहली बार उसे कटनी लाए थे । बिहारी बाबू ने सबको अद्योपान्त किस्सा सुनाया कि कैसे “स्थान” को देख कर यह घटनाक्रम प्रारम्भ हुआ ।सभी ईश्वर की इस अनहोनी पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे । “पुनर्जन्म “का हमारे शास्त्रों में विवरण है लेकिन पूर्वजन्म की घटनाएँ ,रिश्ते ,स्थान ,ज्ञान सब वर्तमान जीवन में भी स्मरण रहें…यह तो इस कल युग में सबके सम्मुख एक आश्चर्यचकित कर देने वाला सत्य था ।
…बड़के चतुर्वेदी ने अपनी परिपक्वता के अनुरूप कुछ सोच कर छुटकी सतिया को अपने पास बैठाया । स्नेहपूर्वक उस की पीठ पर हाथ फेरा और एकदम पूछने लगे,” अच्छा दिदिया एक बात पूछे का है। अम्मा मरे के पहिरे (मरने के पहले) तुमका एक पोटरिया (पोटली) रक्खे के ख़ातिर दिए रहीं । उ मां गहना रहा । ओ हिरा गई (गुम गई) है । ओ की बावत तुम कछु जानत हो का ?ऊ बताबा ।”
यह बात सुनते ही तारा उठ कर खड़ी हो गई । और बोली, ” का कहत हो बड़के भइया! अरे भई हम रखे हैं तो हमई जानत हैं न! ऊ हिरा नहीं गई । तनिक हमार संग आवा । ऊ बाजा कोठरिया में अम्मा की बड़ी पुरानी पेटी है न, ओ ही मां लाल चुनरिया में ओ गहनों की पोट रिया हम बाँध के संभाल दिए रहे । ”
कहते -कहते वह आगे चल रही थी जैसे उसे सब रास्ते आते हों । पिछवाड़े जहाँ पुरानी कुछ कोठरियाँ थीं, उनमें से एक कोठरी  के मोटे लक्कड़ के किवाड़ पर पुरानी मोटी लोहे की साँकल चढ़ी थी । उस पर धूल की पर्तें थीं । ऐसी कुछ कोठरियाँ थीं , जिन में पुराने जमाने के कुर्सी, मेज , फानूस ,तेल के लैम्प, हाथ के पंखे और ज़री के पुराने जमाने के कपड़े लत्ते पड़े थे । इस विशेष् कोठरी में साज व् बाजा वगैरह होने से इसे “बाजा कोठरी ” कहते थे । पुरखों के जमाने के ढोल -बाजे अब किस काम के थे , सो सालों से बंद थे किवाड़ । करिंदों ने आगे बढ़कर साँकल को खोला । धूल, मिट्टी से भरी कोठरी में तारा ने सेवक से पेटी खुलवाई क्योंकि अब उसके हाथ छोटे थे । उस समय सभी के दिल की धड़कन बढ़ गई , मानो हैरी
पॉटर या चन्द्रकान्ता का तिलिस्म  खुलने वाला हो । गहनों की पोटली ठीक वहीँ अम्मा  या दादी के ज़री के लहंगों के ऊपर लाल चुनरी में रखी थी । पोटली के मिलते ही बड़के भैया ने
ख़ुशी में भरकर तारा को गोद में उठा लिया और बेतहाशा प्यार करने लगे । नन्ही तारा भी दोनों  बाहों से उनके गले से लिपट गई ।
…एक किवाड़ की साँकल क्या खुली कि अविश्वास और वहम की सारी सांकलें खुलती  चलीं गई । घर में सब हैरान थे कि इन कोठरियों की ओर कभी किसी का ध्यान क्यों नहीं गया ? खैर, बैठक में  वापिस आकर उनकी नन्ही सी सतिया ने एक-एक कर के सारे गहने गिना दिए । दोनों भाईयों ,भौजाईयों और बच्चों की आखों से भी ख़ुशी की जलधाराएँ बह रहीं थीं । सभी उसे गले से लगाने को आकुल थे । बाहर खड़ी भीड़ भी बेकाबू होने लगी तो बड़के ने तारा को गोद में उठा सब को दिखा कर कहा कि उनकी बहन को शारदा मइया ने दोबारा भेज दिया है । दर्शन कर लो सभी । बिहारी बाबू भी अचरज में बैठे ईश्वर का करिश्मा देख रहे थे ।
अब सुध आई तो बोले,” भैया ! अब हम लोगां भी चला आपुन घर । (तारा को ) आवा बिटिया , बहौत हुई गवा । सँझा होवे को है, बापसी का टैम हुई गवा है । तोहार महतारी बाट जोहत होइ  काहे  कि , अभी  दुई घंटा और लगबै ( तुम्हारी माँ राह देखती होगी ,अभी दो घंटे और लगेंगे ) ।”इतना सुनना था कि जैसे सब लोग किसी तिलिस्म से बाहर वास्तविकता में पलटे । अभो तक किसी को भी खाने -पीने की सुध नहीं थी सो बड़के ने खाना लगवाया ।उधर बिहारी बाबू को लगा एक चक्रवाती झंझावत आया और उनका रेतीला टीला ढह गया ।
अब ना मालूम उसे कौन सा ठौर मिलेगा ।यह लोग रईस और वह ठहरा एक ग़रीब। किन्तु कालान्तर में चतुर्वेदी जी ने उनका टीला ढहने पर उनके लिए पथरीली चट्टान पर एक पक्की इमारत बनवा कर उनको आश्वस्त कर दिया । तारा बिटिया अब सतिया भी थी । वह दोनोंं परिवारों की साझी बिटिया हो गई थी ।।

वीणा विज उदित
5 सितम्बर 2015

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