धरणी हुलसे

तप्ताग्नि से उत्पीड़ित.
जीव निदान ढूँढता फिरे
प्राणधारी श्लथ-लथपथ
छाँव-ठाँव स्थल हेरे
शुष्कं धरा करे रुदन
नभ से ज्वाला बरसे !
दिनकर के अग्निबाणों से
तप्त धरणी हुलसे…।
भ्रमित हुए मृगतृष्णा से
प्राण जल बूंद को तरसे
श्यामल मेघों की आस लिए
हर जन जलते नभ को टेरे
क्षण प्रति क्षण बढ़ी तृषा
प्रकृति नटी के उद्दीपन से
ताल, नदी, नाले शुष्क हुए
इक बूँद जल न विनसे…।
अन्तर्तल सूख वक्र हुए
फटी धरा पेड़-पौधे झुलसे
विकल-व्यथित मन हर पल
बरखा भरे मेघ-कलश हेरे
हर्षित हुए सुन गगन-दुंभी
उमड़-घुमड़ गर्जन नाद
तकते आई मेघों की बारात
लौट चली बिन बरसे…।
मेघों का अनुसरण कर
झुंड खग-मृगों के दौड़ चले
हर्ष-विह्वल,आशंकित से
विस्तृत आकाश तले !
मुख मलीन,नैराश्य भरी
अतृप्त धरणी हुलसे…।।

वीणा विज ‘उदित’

One Response to “धरणी हुलसे”

  1. Veena Says:

    Comment…….मैथलीशरण गुप्त जी के “जयद्रथ -वध ” में ‘निदाघ'(ग्रीष्म) का वर्णन याद आ गया । अतिसुंदर !…सीताराम चन्दावरकर

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