दीदार-ए-यार

बहते चश्मों को तरसते मृग शावक
सागर में समाने को बेताब दरिया
जैसे पपीहे को स्वाति बूँद की प्यास
ख़ादिम को दीदार-ए-यार की आस…

कुंतल लट से लिपट खुश है दिल
बँधकर जंजीर में दीवानगी हुई ऍसी
तिशनगी बुझा रही हैं निगाहें उनकी
दीदार-ए-यार ही अब ख़ुराक बन गई…

उन्हें रब मान दिन-रात की इबादत
दिल का कलमा पढ़ते ही ज़ुबाँ हुई बंद
इश्क कब मोहताज हुआ लफ़्ज़ों का
चारों सू नज़र आती है बयानगी इसकी…!

वीणा विज ‘ उदित ‘

2 Responses to “दीदार-ए-यार”

  1. mahendra mishra Says:

    बढिया भाव पूर्ण रचना

  2. परमजीत बाली Says:

    बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

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