दालमेंकाला

रेशु को आज पल भर की भी फुर्सत नहीं थी|सजे हुए घर को नए सिरे से सजाए जा रही थी |घर पुराना ही सही लेकिन काफ़ी बड़ा था|वैसे भी इसे वो इतने करीने से सजाती-सँवारती थी, कि आने वाले आगुंतक एकबारगी उसकी कलात्मक अभिरुचि और कला-प्रेम की झलक उस सजावट में देखकर उसकी भूरी-भूरी प्रशँसा किए बिना नहीं रह पाते थे |मेन-गेट से भीतर आते ही दोनों ओर सदा-बहार पौधों की हैल्दी कतारें बरबस ही आगुंतक का ध्यान बाँध लेती थीं |ये पौधे उसका passion थे |वह उनसे बातें करती ,उनको सहलाती व कपड़े से उनकी मिट्टी पोंछ कर दुलारती भी थी |तभी तो वे भी लहलहाते थे |यहाँ तक कि अकेले में उन्हें गीत भी सुनाती थी |जिसकी धड़कनों में निर्जीव पौधों के लिए प्रेम के स्त्रोत बहते थे ,वो आज अपनी देवरानी के माँ बनकर नन्ही बिटिया लेकर मायके से वापिस आने की खुशी में फूली नहीं समा रही थी |देवरानी को लिवाने देवर गए हुए थे |गाड़ी शाम को आनी थी, लेकिन समय था कि भागे जा रहा था | अभी बहुत काम पड़े थे करने को |रेशु अपने दोनों बेटों आदित्य (५वर्ष) और अर्जुन (४वर्ष) से बातें करती जाती और चलती फिरती खाने का व घर का काम करती जाती थी |

“शोर मत मचाना , तुम्हारी छोटी सी बहन आ रही है |उसका ध्यान रखा करना |दौड़-दौड़ कर चाची जो कुछ मँगाए ले आया करना |दूध की बोतल , नैपकिन या कटोरी-चम्मच जो कहे पकड़ा दिया करना, छोटी बेबी के मुँह पर पारी मत करना, हाथ पर प्यार करना और हाँ, खाँसी आए तो मुँह फेर लेना या मुँह पर हाथ रख लिया करना, बेबी सोए तो घर में शोर एकदम नहीं करना” वगैरह- वगैरह|रेशु के हाव-भाव वा बौडी-लैंग्वेज से उत्साह फूटा पड़ रहा था|अम्माजी वराँडे में पलंग पर बैठी सब गौर से सुन व देख रही थीं |रेशु का यूं चाव करना उन्हें रत्ती भर भी नहीं भा रहा था |”अरे , हम क्यों चाव करें? ऊर्जा ने कभी हमारी सुनी क्या? तुम्हारी दोनों जचकीं यहीं हुईं , कित्ती अच्छी देखभाल हुई |तुम दोनों बार मायके बाद में गई थी |और ये महारानी, माँ के पास की जचकी |देखेगें कित्ती सेहत बना के आ रही है|”जब रेशु ने कोई तवज्जो नहीं दी, तो अपने मन के गुबार लिए वे बुदबुदाने लग गईं |यह देख रेशु मुस्कुरा कर अपने काम में लग गई |उसे कहाँ फुर्सत थी कि पूछती अम्माजी क्या बोलना चाह रही हो| बच्चे भी तैय्यार हो गए थे, पापा के आते ही वे भी उनके साथ स्टेशन चले गए, गाड़ी के आने का समय हो गया था|तभी रामू गुब्बारे ले आया मार्केट से और रेशु ने ३-४ स्टफ-टाँयस पहले ही लाए हुए थे |सो दोनों ने मिलकर झूले को व कमरे को झट से सजा दिया |जब सब कुछ रेशु के मन के मुताबिक हो गया तो वह स्वंय भी तैयार हो कर उत्सुकता से उनकी बाट जोहने लगी कि तभी कार का चिर-परीचित हाँर्न सुनकर सरल हृदय रेशु ने उल्लासित एहसास लिए गेट खोला और कार के रुकते ही कार का गेट खोल नन्ही सी प्यारी सी गुड़िया को देवरानी की गोद से उठा लिया और छाती से चिपका लिया |

“आओ , माते श्री! पधारो”, कहकर देवरानी को दूसरी बाँह से भींच लिया |ऊर्जा का बदन थोड़ा गदरा गया था |मालूम हो रहा था कि वहाँ कुछ नया घटा था |इस हार्दिक स्वागत से ऊर्जा का चेहरा भी खिल गया था |गले में नया मंगल-सूत्र, जिसमें हीरे जड़ा चौड़ा पैंडट व नाक में हीरे की कनीइन सब की चमक से चेहरे की आभा दुगुनी हो गई थी |रेशु को उर्जा प्यारी लगी |ऊर्जा ने भाभी के पाँव छुए ,और बिटिया को गोद में लेकर भीतर जा कर अम्माजी के पाँव छूने के बाद उनकी गोद में डाल दिया |मानो ,उनके परिवार की अमानत उनके हवाले कर दी हॉ |”अरे! बिटिया तो ताई जैसी गोरी है “, अम्माजी ने उसे सँभालते हुए कहा |रेशु का मुँह यह सुनते ही फक्क हो गया | उसे लगा आते ही ऊर्जा का मूड बिगड़ा समझो |लेकिन ऊर्जा शान से मुस्कुरा दी |जैसे उसे बेटी की बढाई अच्छी लगी हो |ऊर्जा की सकरात्मक प्रतिक्रिया देखकर रेशु के सिर से बोझ उतर गया और माहौल सहज ही बना रह गया|बच्चे हँसी -खुशी से चाची के पीछे-पीछे उसके कमरे की ओर बढ चले थे कि ऊर्जा अपने कमरे के बाहर दरवाजे पर ही ठिठक कर रुक गई |रेशु भी साथ थी |अपने कमरे की मनमोहक सजावट गुब्बारे, खिलौने ,सजा हुआ झूला वगैरह देखकर उसने पीछे मुड़कर भाभीको देखा और हर्षातिरेक से उनके गले लग गई |उसकी आँखों व हाव- भाव से रेशु के प्रति कृतज्ञता छलक रही थी |

बेटी जनने का भय — जो उसे ससुराल की दहलीज लाँघने में साल रहा था | वह भय , इस लाड़-दुलार व स्वागत से जा चुका था |बेटी होने के बाद अपने मायके में वह इस ख़्याल से ही नर्वस हो जाती थी कि अम्माजी उसे तानें देंगी |पर वास्तविकता में उसके साथ ऍसा कुछ भी नहीं घटा |वह बहुत हल्का महसूस कर रही थी |प्रफुल्लचित्त हो कर सामान्य रूप से वह पुनः घर-गृहस्थी में जुट गई |अगले दिन रेशु बेबी की मालिश कर रही थी ,तो ऊर्जा बेबी की फ्राँक्स निकाल लाई |दोनो सलाह करके उस तैयार कर रही थीं |माथे पर काला टीका भी लगाया |अम्माजी ग़ौर से देखती रहीं |ऊर्जा ने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया |उसने एक बार भी उन्हें बेबी उठाने को नहीं दी , इससे वे चिढी बैठी रहीं |बेबी को कमरे में सुलाने के बाद वो हाथ में कुछ सामान लाई व अम्माजी को देती हुई बोली,”ममी ने बेबी के पैदा होने की यह एक साड़ी आपकी और एक भाभी की भेजी है |(शान बघारते हुए)मुझे नाक में हीरे की कील और मंगल-सूत्र में हीरे का पैंडेंट बनवा दिया है |”सुनकर भी अनसुनी करते हुए अम्माजी ने उपेक्षा से नज़रें फिरालीं |इस पर ऊर्जा ने भाभी की ओर देखा कि उन्हें तो कमतरी का एहसास हो रहा होगा |लेकिन रेशु उसकी शान को हवा न देती हुई, रसोई की ओर जा चुकी थी |जैसे महाभारत के कृष्ण भगवान टेढी मुस्कुराहट से जता देते थे कि वे सब कुछ जानते हैं, ऍसे ही कुछ भाव थे रेशु की मुस्कान के भी|कल साँझ ढले की ही बात तो थी |रेशु के बैडरूम की जो खिड़की पोर्टिको की ओर है ,वह वहाँ बैठी बच्चों को होमवर्क करवा रही थी तो पति और देवर यानि कि दोनों भाई अंधेरे में कुछ गरमा-गरम बहस में लगे हुए थे |उसने बच्चों को दादी के पास भेज दिया और लाईट बंद करके कान लगाकर ध्यान से सुनने लगी |”आखिर वो पेमेंट है कहाँ? कोई छोटी रकम तो नहीं है न! कब से पूछ रहा हूँ, कुछ जवाब तो होगा तेरे पास ?””हम लोग ऊर्जा की सहेली के पास बनारस घूमने गए थे , बस और क्या बताऊं?”,इतना कहकर शायद देवर गेट खोलकर घर से बाहर चले गए थे |पदचाप की आवाज बता रही थी |रेशु चुपचाप कुछ देर वहीं बैठी रह गई | उसे लगा, ” दाल में कुछ काला है ” |पर उस ‘काले’ को वह दाल में कहाँ ढूंढ़े ? उसे यह समझना था |

बाहर आकर देखा , पतिदेव विचारों में गुम चुपचाप बैठक में बैठे हैं |रात बिस्तर पर भी वे करवट लेकर सोने का उपक्रम कर रहे थे |रेशु ने भी बात कर के छेड़ना उचित नहीं समझा |वो भी विचारों के ताने-बाने बुनने लगी थी |दोनो भाईयों का मजबूत रिश्ता आज उसे झीना हो गया लग रहा था | उसके फटने का डर रेशु को सालने लग गया | लेकिन, अपने पति पर उसे विश्वास था कि वे समय आने पर ‘तुरपाई’ कर सकते हैं |उनमें अदम धैर्य, ठहराव और दूरदर्शिता थी |तभी तो वे सब सुनकर भी चुप थे |अम्माजी कहतीं थीं कि ये घर का थम्ब(पिलर) है ; जिस पर उनकी गृहस्थी टिकी थी |कभी काम अच्छा होता , तो जहाज का सफ़र मुमकिन होता | जो कभी मंदा होता तो कार के पेट्रोल के पैसे भी नहीं होते थे |स्कूटर साथ देता था उन हालात में |रेशु सब समझती थी और बहुत समझदारी से चलती थी| लेकिन ऊर्जा ….!खैर, सुबह वे बिन खाए-पीए ही दुकान पर चले गए |रेशु भी विचारों में गुम काम करती सोचने लगी कि जिनकी तीन बेटियाँ हों -काम भी ठीक -ठीक ही हो ,क्या वे बेटी के बेटी जनने पर हीरे के इतने बहुमूल्य तोहफे दे सकते हैं ? ऊर्जा मायके की जो शान बघार रही थी , वह उसे अस्वभाविक लगी थी |रेशु को दाल यहीं पर काली लगने लगी |फिर भी वो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रही थी |इस घटना के तार आपस में जोड़ने पर ही वह ऊर्जा की शेखियाँ सुनकर ओठों पर टेढी मुस्कान बिखेर वहाँ से चल दी थी |ऊर्जा को भी जब किसी ने भाव नहीं दिया , तो वह खिसयानी बिल्ली सी अपने बैड-रूम में चली गई थी |

ऍसे ही एक दिन भाभी के कान में नए डिज़ाईन की बालियाँ देखकर ऊर्जा ने उत्सुकतावश पूछा, “भाभी ! बहुत प्यारा डिज़ाईन है |इस बार मायके से मिलीं हैं क्या?” रेशु ने नाँर्मल तरीके से कहा, “आपके भैया ने बनवा दी हैं |मायके से तो खास वाँयल की साड़ी मिली है , जो मैने परसों पहनी थी |” “कमाल करती हो भाभी आप भी! क्यूँ बताया घर में यह ? आप कह देतीं कि मेरे बाबूजी ने बनवा दी हैं बालियाँ | साड़ी में भी अपने पास से और पैसे डालकर बढिया सी ले आतीं |आपकी शान बढ जाती और किसी को कुछ पता भी नहीं चलता| हमने तो खुद खरीदकर अम्माजी को कह दिया है कि मायके से यह सब मिला है | “, झट ऊर्जा ने कहा |यह सुनते ही रेशु को ऊर्जा की चुस्ती और चालाकी में पति की कमाई का निरादर प्रतीत हुआ |लेकिन , उसे समझ आ गया था कि “दाल में काला”यहीं पर है |
वीणा विज ‘उदित’

One Response to “दालमेंकाला”

  1. Uttam Kumar Says:

    बहुत हेी बधेीया कहानेी है…

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