शह और मात

शिप्रा बच्चों के साथ पचमढ़ी हिल-स्टेशन पर गर्मी की छुट्टियाँ बिताकर घर वापिस आई,तो पिछली कोठी में कुछ नए चेहरे दिखे |दोनो कोठियों के मध्य बाउंडरी-वाँल के नाम पर चार -साढे चार फुट ऊँची दीवार है |चलते-फिरते एक-दूसरे की शक्ल पिछले आँगन में दिखाई दे जाती है | अगले दिन शिप्रा रस्सी पर तौलिया टाँगने आँगन में आई, तो एक लम्बी सी दुबली – पतली ,गोरी सी तकरीबन उन्नीस-बीस वर्ष की लड़की दिखी | उसकी गोदी में दो-ढाई वर्ष का जूड़ीवाला सरदार बालक था| वो झट से दीवार के पास आ गई |बोली,
“बहनजी! आपको पहले यहाँ नहीं देखा ?”
शिप्रा भी प्रत्युत्तर में बोली, ” मैंने भी आपको यहाँ पहले कभी नहीं देखा|”इस पर वह हल्के से मुस्कुराकर बोली, “हम तो एक महीना हुए पिंड(गाँव) से आए हैं| बेबी की ममी के किराएदार हैं |”यह सुन शिप्रा ने उसकी शंका का समाधान कर दिया | सुनते ही उसका सादगी भरा मुख खिल उठा | वो बोल उठी,” बहुत अच्छा लग रहा है कि पिछले घर में रौनक है |बच्चों का शोर होगा तो गहमा-गहमी रहेगी| मेरा और काके का दिल भी लग जाएगा |”तभी एक अधेड़ औरत ने उसे आवाज़ दी ,” सावी! काके को अंदर ले आ |”
“फिर मिलूँगी”—कहकर वो जल्दी से भीतर चली गई |मानो देर हुई तो डाँट पड़ जाएगी |शिप्रा ने ध्यान से सोचा कि सावी की कलाई पर स्टील के कड़े के अलावा बदन पर और कोई गहना या श्रिंगार नहीं था ,बल्कि उसका सूट भी फीके से रंग का था | पर ज़्यादा ध्यान न देते हुए वह अपनी दैनिक-दिनचर्या में व्यस्त हो गई ,क्योंकि छुट्टियों से वापिस आने पर अभी सारा घर समेटने को पड़ा था | हाँ, कभी-कभार कमरे से वरांडे में आते-जाते उसे वो लोग भी अंदर-बाहर होते दिखाई दे जाते थे | दिन यूँ ही बीत रहे थे कि एक शनिवार की दोपहर को दीवार के उस तरफ से आवाज़ सुनाई दी,” छोटू ! दीवार के पास कोई कुर्सी या स्टूल रखदे | मैंने उधर आना है| ” सुनते ही छोटू ने कुर्सी लाकर दीवार के पास रखी और सावी के हाथ से काके को पहले पकड़ लिया | तब तक शिप्रा भी बाहर चली आई और उसने सावी को सहारा देकर अपने आँगन में उतारा |वह प्रेमपूर्वक दोनो को भीतर ले आई | शिप्रा ने शिष्टाचार के नाते प्रसन्नता दर्शाते हुए कहा ,” अपनी माताजी को भी बुला लो ,सब इकट्ठे चाय पीएंगे |” बुलाना तो क्या था? वो जैसे मौका ढ़ूंढ रही थी कि कैसे अपनी बात आरम्भ करे| उसकी गाड़ी तो रफ्तार लेकर पटरी पर निकल पड़ी | वह छूटते ही बोली, ” माताजी- कहलाने लायक होती यह बुढ़ी , तो फिर बात ही क्या थी? है तो यह मेरी सास ! पर–अब आपको क्या बताऊँ ?और क्या छिपाऊँ? आप सुनो , आपको शुरु से बताती हूँ| —
” बचपन के पंद्रह साल पिंड में सहेलियों के साथ हँसते-खेलते और घर में बेबे की झिड़कें(ड़ाँट) खाते पता ही नहीं चला कब बीत गए | सोलहवें में पैर रखते ही शादी के रिश्ते आने शुरू हो गए | ढिलवाँ गाँव की जमींदारन की बेटी अमरीका ब्याही है |बेटा भी एक ही है , जो ढेरों किले ज़मीनों का और संतरे, किन्नू के बाग़ॉं का अकेला वारिस है, उसका रिश्ता आया है | बस जी, मेरे घर वालों की तो बाँछें ही खिल गईं | मुझे सारे पिंडवाले ‘भागोंवाली’ कहने लग गए | अमरीका का नाम जुड़ते ही पंजाब के गाँव के लोगों की लार टपकने लग जाती है | वे पल भर में ख़्वाबों के हवाई-महल खड़े कर लेते हैं | बापू बोले,” सावी की किस्मत से हमारा बेड़ा भी पार हो जाएगा | सावी की निनाड़ (ननद्) सावी को विलैत ( विदेश) बुला लेगी ,फिर सावी अपने वीर (भाई ) को और वो हम सब को |” वहाँ मनसूबे बाँधे जा रहे थे और मैं इधर इन सबसे अन्जान अपनी सहेलियों को चिढा रही थी कि देख लो मेरी पारी सबसे पहले लग गई है | मैं तो खुशी से झल्ली (पागल) हो रही थी |नए-नए ज़रीवाले कपड़े, सारे ही गहने, परस, सैंडल, जुत्तियाँ, लिपिस्टिक-नेल पालिश-बिन्दियाँ देख-देखकर | मेरी जाणे बला (मुझे क्या पता)कि शादी क्या शै (चीज़) है? लाणा (दूल्हा) कौन व कैसा है? लो जी , कुछ दिनों के शोर-शराबे में पहले शगन फिर गुरुद्वारे में मेरी लावाँ (शादी)हो गईं | मैं लाल गठरी बनी किसी अंजान अपने के संग विदा कर दी गई ,कभी वापिस न आने के लिए | क्योंकि इसने मुझे कभी मायके नहीं जाने दिया |ख़ैर, छोटी-मोटी रस्मों के बाद वैसी ही लाल-गठरी बनी मैं अपने दाज(दहेज) के पलंग पर बैठा दी गई | कोई स्याणी (बुजुर्ग) दूध का चूड़ीदार गिलास भरकर लाई और हिदायत दी कि बाद में पति को पिला देना |मैंने बात सुन ली, पर समझ नहीं आई | आती भी कैसे ? मैं तो अपने ग़बरू जवान लाणे का एक-एक पल इंतज़ार कर रही थी कि कब वो आए और मुझे अपनी बाहों में भरकर ढेर सारा प्यार करे | क्या जानूं मेरी तो किस्मत ही फूट गई थी !(रोते हुए) बहनजी!! आधी रात होने को आई| मेरे दिल में उल्टे-सीधे ख़्याल आते रहे कि नशे में धुत्त लड़खड़ाते हुए वो कमरे में आया | आते ही एक मोटी सी गाली देकर उसने मेरा दुपट्टा खींचकर परे सुट(फेंक) दिया |उसकी आगे की हरकत पर जब मैं चीखी तो ज़ोर से थप्पड़ मारकर उसने अपनी हवस बुझाई और वहीं ढेर हो गया | प्यार तो क्या करना था उसने मेरा चेहरा भी नहीं देखा |मैं सपनों की राख के ढेर पर पड़ी एक ज़िन्दा लाश सी उठी और दूध्-दूध कह कर गिलास उठाकर उसे देने गई | पर वो जोर जोर से खर्राटे ले रहा था | मैंने दूध आपे(खुद) पीकर स्यापा (लफड़ा) ही मुकाया(खत्म किया)कि कहीं सवेरे पुवाड़ा(मुसीबत) न पड़ जाए | “—उसकी कहानी को यहीं टोककर शिप्रा ने ठंडी होती चाय पीने को बढाई |
इतना सुनकर ही शिप्रा का मन अत्यंत बोझिल हो गया था |सावी भी अचानक चुप हो गई मानो अतीत की डगमगाती किश्ती पल भर को साहिल पर आ लगी हो | चाय का कप उसने झट खाली कर दिया-खाया कुछ भी नहीं | जैसे वो अपने मन का गुबार जल्दी से जल्दी बाहर निकालना चाह रही हो | वो पुनःशुरू हो गई–“आज बेबे संतरों के बागों का ठेका देने ढिलवाँ गई है, कल वापिस आएगी |तभी तो मैं कूदकर आपसे अपना दिल खोलने आ गई हूँ | मुझे आप बड़ी बहन लगे हो जी! इसने मुझे मेरे पेके(मायके) वालों से कभी नहीं मिलने दिया |अपना तो कोई है ही नहीं इस सारे संसार में | मेरा घरवाला रोज़ तड़के(सवेरे) ही तूड़ी(सूखा चारा)वाले हाँल में चला जाता और शराब पीना शुरू कर देता ,सारा दिन वहीं मंजे(खाट)पर पड़ा रहता | झूमते-झूमते कभी कमरे में आ जाता तो बेहोश पड़ा रहता | वैसे रात को कामे (नौकर) ढोकर उसे बिस्तर पर लिटा जाते |(फफकते हुए) उस शराबी ने मेरी जवानी ग़ाल दी |कसम ले लो बहनजी ! मैंने एक दिन भी सुख का नहीं देखा | ” और वह सुबकने लग गई | अपने ज़ख्मों का दर्द सँभाले हुए वह उन्हीं में लिपटी हुई थी | दर्द की लकीरें उसके चेहरे पर उकर आईं थीं | प्रेम और विश्वास का तन्तुजालु बहुत ही नाज़ुक होता है | जिस प्रेम की प्यास लिए वह एक विश्वास के साथ उस घर में आई थी, वहाँ विश्वासघात व छल पाकर वह टूट चुकी थी | शिप्रा ने उठकर उसे जफ्फी डाली व स्नेह से उसके साथ ही बैठ गई | सावी ने भी शिप्रा का हाथ थाम लिया मानो उसे सम्बल मिल गया हो | वह फिर बोलने लगी | शिप्रा ने उसे बोलने दिया |
“बहनजी ! शादी के पूरे नौ महीने बाद मेरे यह काका पैदा हो गया |ये बुढी काके को लेकर घूमती थी | मुझे तो नौक्ररानी बना के रखती थी | मैंने एकाध बार दबी ज़ुबान से कहा भी कि अपने पुत्तर (बेटे)को शराब पीने से रोके | उसकी सेहत का ध्यान रखे | इस बात पर इसने मुझे खूब मारा-पीटा | और कहा कि अपने बाप के पैसे से पीता है, तेरे बाप से तो नहीं लेता | रईसों की टौर (शान)इसी से होती है | बहनजी ! टौर तो नहीं बनी | जिस बात का डर था , वही हुई | एक रात वो देर गए तक नहीं आया तो सोए हुए कामे को उठाकर भेजा कि उसको ले आए | वो चीखता-चिल्लाता खोटे सिक्के सा वापिस दौड़ता आया कि छोटे जमींदारजी खून की उल्टी कर ज़मीन पर गिरे पड़े हैं | उसी वक्त अस्पताल ले गए | लिवर खराब हो चुका था | वो नहीं बच सका | मुझे सुहागन का सुख तो नहीं दिया पर विधवा बना गया | छोटी सी उम्र में अपने काके को छाती से लगाए मैं बेबस ऊपरवाले का न्याय देख रही थी | मेरे सारे गहने, कपड़े, साज-श्रिंगार जिनके लिए मैं बावरी थी , मेरी सास ने पेटी में बंद कर रख दिए | बोली, ” तूँ सच्ची सिखड़ी ए ते ऍ कड़ा पाई रखीं “(तूँ सच्ची सिख है तो यह कड़ा कलाई पर पहने रखना)| लो जी, मैं हमेशा के लिए सज गई | (कड़ा दिखाते हुए)देखो , मैंने कड़ा पहना हुआ है |बहुत ही तेज औरत है |”
इतना कहकर वह फिर बिफर उठी | शिप्रा का मन पसीज उठा था |भरी जवानी में बहार के बदले वीराने उसके दामन को चीर गए थे |वह सोचने पर मजबूर थी कि सदियों से नारी को प्रताड़ना सहनी पड़ी है | चाहे वो आज की ‘सावी’ है या सदियों पूर्व की शापित ‘अहिल्या’ |स्पष्ट था कि काले-अँधेरे अतीत के साये उस पर हावी थे | उसने पुनः उसे धीरज बँधाया व उसके आँसूं पोंछे | जैसे उसकी भाव-प्रवणता को उसकी संवेदनशीलता ने बढ्कर सहारा दे दिया हो | पुनः उन ड़रावने सायों से निकल वर्त्तमान में स्थिर हो उसने कहा, “अच्छा बहनजी! चलती हूँ| फिर कभी मौका लगा तो आऊँगी ” अपने पल्लू से आँसू पोंछ वो जैसी आई थी, वैसी ही चली गई, दीवार फाँदकर |
उसकी दर्द भरी दास्ताँ सुनकर शिप्रा का मन बहुत भारी हो गया था | रात को शैलेश को उसने सारा किस्सा सुनाया |उसे भी इन बातों ने सावी के प्रति सहानुभूति से भर दिया | कुछ दिन बीते ,सावी दीवार के पास खड़ी नेल-पाँलिश लगा रही थी |शिप्रा आँगन में ही थी | हैरान हो उसने सावी से धीरे से पूछा, “क्या बात है? यह कैसे?”
उसने इधर- उधर पैनी नज़र से देखा,कि कोई है तो नहीं? किसी को न पाकर बोली,” बहनजी! मेरी सास मेरे लिए चार रंगदार प्रिंट के सूट ,नई चप्पल ,लिप्सटिक-नेलपालिश और क्रीम-बिन्दी लाई है | कहने लगी कि तेरा निनाड़वैया (नन्दोई) आ रहा है | सुन्दर सज के रहना |यहाँ हमें कोई नहीं जानता है न!, इसीलिए तो हम शहर रहने आ गए हैं |मेरी निनाड़ के कोई औलाद नहीं है | वो तो माँ को शह देती है कि भाभी और भतीजे को भेज दे | वो ही पालेगी |अब उसका घरवाला ‘जगजीत’ हमें लेने आ रहा है ,इसलिए ही मेरी सास मुझे सजा रही है |” इतना कहकर अल्हाद से भरी वो अंदर भाग गई | उसके हाव-भाव में अल्हणपन था |कहीं कुछ था , जो शिप्रा को खटक गया था | नन्दोई के आने से कपड़े अच्छे पहनने तक तो ठीक था , लेकिन साज-श्रिन्गार —? बात हज़म ना होते हुए भी वो उसके चेहरे पर आई मुस्कुराहट देखकर वो प्रसन्न हो उठी |
अगले दिन संध्या पूर्व पिछले आँगन में कोई पैंतालिस की उम्र का एक बिना पगड़ी का नया व्यक्ति दिखा | शिप्रा ने वराण्डे से उचटती नज़र डाली और समझ गई ,यही है वो |फिर तो कुछ दिनों तक सावी दिखी ही नहीं |पर, इतवार की दोपहर तीन बजे के करीब पिछले आँगन में एक दूल्हा एवम उसके गले में लटकते गुलाबी पल्लू से बँधी घूँघट डाले लाल-सूट में दुल्हन दिखी | उसका डील-डौल सावी जैसा लगा |यह देख शिप्रा बेचैन हो गई | वो हर अगले पल सावी से मिलना चाह रही थी |लेकिन इंतज़ार की घड़ियाँ साँझ के धुँधलके में एक साये के दीवार के पास आने से खत्म हुईं| शिप्रा समझ गई |वह झट वहाँ पहुँची |उसके सामने सावी दुल्हन बनी सजी-धजी खड़ी थी |खुशी से उसके चेहरे पर आभा बिखरी पड़ी थी , मानो टूटते पौधे को किसी ने आसरा देकर पुनः रोप दिया हो |और वह पल में लहलहा उठा हो |दीवार पर से शिप्रा का हाथ
पकड़कर बोली, “बहनजी! आज नन्दोईजी के साथ गुरूद्वारे में मेरी लावाँ(शादी) हो गई हैं |शादी की एलबम हफ्ते तक तैयार हो जाएगी | उसे दिखाकर वीज़ा मिलेगा | फिर मैं और काका उनके साथ अमरीका चले जाएंगे |अब हमने उस मनहूस पिंड कभी भी नहीं जाना है | शिप्रा उसके लिए बेहद खुश हो गई | दीवार पार से ही उसने उसे गले लगाया और ढेरों शुभ आशीषें दीं | तहे दिल से चाहा कि अब वह जीवन-पर्यन्त मुस्कुराती रहे |शिप्रा के हाथों को बार-बार चूमकर वो चली गई , बहारों के ख़्वाब लिए —–
शिप्रा कुछ पल वहीं खड़ी की खड़ी रह गई | एक सच्ची मित्र व बहन सी ये मनाती रही कि उसकी खुशियों को कभी नज़र ना लगे |सच है खुशियों का रिश्ता व्यक्ति के साथ नहीं , हालात के साथ होता है | यहाँ के संदर्भ से कटकर आज वह नूतन स्वरूप में नए जीवन से जुड़ी है |इसके क्षितिज का विस्तार हो |ऍसी कामनाएं करती वो भीतर चली गई , सारे परिवार को बताने |उसके चले जाने के बाद शिप्रा जब भी पिछले आँगन की ओर तकती ,उसके ख़्यालों में सावी आकर खड़ी हो जाती |लेकिन वक़्त की सरकती रफ्तार में उसकी स्मृति धूमिल पड़ती चली गई |
तकरीबन एक साल बाद, शिप्रा को डाक से एक पोस्टकार्ड मिला |
उसमे लिखा था–” बहनजी! मैं दिल्ली में हूँ |किस्मत की मारी मैं क्या बताऊँ? लम्बी कहानी है | आकर मिल जाओ |जवाब मत देना | आपकी उदास ,सावी |”
दिल्ली में कालकाजी का पता था |किसी से लिखवाया होगा |शिप्रा तो उसे अमरीका भेज चुकी थी |वो दिल्ली में कैसे?–वो बेहद असमंजस में पड़ गई |उसने शैलेश से सलाह की | शैलेष ने कहा कि वह चिंता ना करे, एक-दो महीने तक उसने दिल्ली जाना है वो सावी को भी मिल आएगा |नेह का नाता था , खून का नहीं–फिर भी वह सावी के लिए अपने ईष्टदेव से प्रार्थना करती रहती |आख़ीर शैलेष दिल्ली चला गया | वह चार दिनों बाद वापिस आ गया | आते ही उसने सावी से मिलने व उसकी आपबीती सुनाई |शैलेष बोला,
“पोस्टकार्ड पर लिखे पते पर जब मैं कालकाजी पहुँचा तो एक छोटे से फ्लैट का दरवाजा थपथपाने पर सावी ने खोला | शायद वो अकेली थी | मुझे देखकर हैरान हो -‘शैली पाजी'(भैया) कहकर रोने लग गई | शायद उसे लगा होगा कि उसकी व्यथा सुनने कोई तो आया |पानी पिलाकर तुम्हारा और बच्चों का हाल पूछा | बोली बहनजी को साथ ले आना था ,उनकी ही याद आती है बस |(यह सुन शिप्रा रो पड़ी )खैर, उसने बताया काका स्कूल और सास गाँव गई है |मेरे पूछने पर कि वो इंडिया में कैसे है? अमेरिका क्यों नहीं गई? उसने आपबीती यूँ सुनाई—–
“मेरी सास , मेरा नया पति मतलब मेरा नन्दोई जगजीत , काका और मैं जब वीज़ा लेने दिल्ली आए तो हम किसी छोटे-मोटे होटल में ठहरे थे | सुबह तड़के ही उठकर हम चारों टैक्सी में अमरीकन अम्बैसी में पहुँचकर लाईन में लग गए थे | वहाँ बहुत भीड़ थी | मैं खुश थी कि मेरा मर्द मेरे साथ था | शादी हुए पंद्रह दिन हो चुके थे |पहले मेरी कल्पनाएं डर और अँधेरे सायों से चिंदी पड़ी थीं , लेकिन अब जगजीत के सामीप्य को मैं पूरी तरह जी रही थी | हर साँस में उसे पीती थी | अपने को औरत समझ गौरवांवित होती थी |लेकिन, दिल की बताऊँ– जगजीत पर विश्वास करना चाह कर भी शक के घेरे मुझे घेरे रहते थे | लाईन में खड़े वह बोला, “सावी तूँ और बीबी यहीं घास पर बैठ जाओ | वहाँ बारी-बारी बुलाते हैं |” मैं काके को नहीं छोड़ रही थी, क्योंकि मैंने अकेले में उन दोनो को कई बार खुसर-पुसर करते देखा था| मैं काके को पकड़े वहीं लाईन में खड़ी रही |जब उसकी बारी आई तो वह हमें छोड़ काके की उंगली पकड़कर भीतर जाने लगा | इस पर मैंने शोर मचाया कि मैं काके को नहीं छोड़ूंगी | उसने मुझे जोर से धक्का दिया ,तो मैं पीछे भागी और रोनो-चिल्लाने लगी–‘मेरा बच्चा! मेरा बच्चा!!मेरा बच्चा दे दो !!!सिक्योरिटी वालों ने रोका तो वहाँ हो हल्ला मच गया |मेरी सास भी मोटी-मोटी गालियाँ निकाल रही थी |ओ औलाद की दुश्मन ! छोड़ दे हमारे पोते को |पर पाजी ! मैं , जिसकी ज़िन्दगी में सिर्फ़ काका ही काका है –उसे कैसे छोड़ देती ? वहाँ इतना शोर-गुल और झगड़ा हुआ कि वे भीतर नहीं जा सके |उनकी बारी निकल गई और अगले नम्बर वाले भीतर चले गए |शायद जगजीत डर गया कि कहीं पूछ-ताछ हो गई तो लेने के देने ना पड़ जाएं |उसका अपना वीज़ा ही कैंसल ना हो जाए,और चार सौ बीसी का केस बन जाए | सो, उसने हम सब को लेकर वहाँ से भागने की करी |टैक्सी लेकर हम सब होटल वापिस आ गए |
होटल आते ही कमरा बंद करके दोनो ने मुझे ताड़-बताड़ मारना शुरू कर दिया | मेरी आत्मा तो पहले ही ज़ख़्मी हो चुकी थी, अब मेरे शरीर पर भी नील व ज़ख़्म पड़ गए थे | मेरा रो-रोकर बुरा हाल था |काका डर व दहशत से रो रहा था और मैं काके को छाती से चिपकाए हाय! हाय!! कर रही थी |इन बेदर्दियों ने एक बार फिर मुझे छलना चाहा | रब्ब(भगवान) मेरे साथ था, मैंने इन्हें करारी मात दे दी थी | जब जगजीत मार-मारकर थक गया तो झ्ल्लाकर चीखा,” बीबी! काका साथ चला जाता तो हमको औलाद मिल जाती |” बीबी भी बोली ,”और नहीं तो क्या ? अच्छी परवरिश पाकर लायक बन जाता | इस कलमुँही को तो हमने फिर इसके माँ-बाप के घर सुट्ट(फेंक) आना था|जगजीत पुत्तर ! तूँ तो ख़्वामखाह इतना पैसा खर्च करके बच्चा लेने आया | इस करमोंजली ने हमारे सारे इरादों पर पानी फेर दिया है |”इस पर मैं भी जोर से चीखी, “मेरी अस्मत के साथ ये पंद्रह दिनों से खेल रहा है |मेरे सोए पड़े अरमानों को जगा के रख दिया है इसने |मेरे को फिर से औरत होने का एहसास करा के , छल कर के मुझे छोड़ के जा रहा है |और तूँ कहती है यह ऍसे ही किराया-भाड़ा खरच के आया है |ऍश कर रहा है, जब से आया है |मुझे फिर से बंजर ज़मीन बना के छोड़
जाएगा |मरती मर जाऊँगी , पर अपना बच्चा इसे कभी नहीं दूँगी |”
इतना सुनाकर सावी अपने पल्ले से नाक व आँसूँ पोंछने लगी |फिर बोली, ” पाजी ! मैं भूखी -प्यासी दर्द से विफरती रही पर-पर वहाँ हमें पूछने वाला कोई नहीं था | अगले दिन ही जगजीत बाहर गया और अपने किसी पहचान वाले से मिलकर ये घर हमें किराए से लेकर दे गया |और चला गया |मेरी सास , काका और मैं अब यहीं रहते हैं |मेरे मायके वालों के लिए तो मैं मर चुकी हूँ शायद ! मेरे जीवन का अब एक ही लक्ष्य है ‘काके’ को लायक बनाना और खूब पढाना | आपने देखा पहले तो किस्मत ने छला |फिर मेरी ननद की शह पर मैं दोबारा छली गई | पर मैंने भी इनको करारी मात दे दी है | आप लोग ही मेरे अपने हो | बहनजी से कहना मेरी फ़िक्र ना करें |” –इतना सुनाकर शैलेष चुप कर गया |शिप्रा रोए जा रही थी , उसने उसे प्यार की जफ्फी डाल दी |
शिप्रा को सावी पर गर्व हुआ कि उसने अपने कुछ निजी पलों की भावनात्मक दुर्बलता को अपने जीवन का पर्याय ना बनने देकर , अपने बच्चे का भविष्य अपने हाथों से सँवार लेने का निश्चय किया था अपने बूते पर !!
वीणा विज ‘उदित’

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