कश्मीर की पीड़ा

आर्त्तनाद कर उठी कश्मीर की छाती.
क्षीण -स्वर में बिलख.रही है वादी ।
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धरा पर स्वर्ग की ताबीर.जो देती
कलियों की गुफ्तगू भ्रमर लुभाती
कदम बोसी करती जहां रेशम हरी
शुभ्र चांदनी पे गहराई अमावस कारी।
क्षीण-स्वर में बिलख रही है वादी ।।
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वक्ष:स्थल पर बहाए जो हिम-धाराएं
उग्रवादी क्रीणाओं से रक्त सनी हो जाएं
बरखा का श्राप पा वही उफना उठीं
खूनी तेवर से की जन की बर्बादी ।
क्षीण स्वर में बिलख रही है वादी ।।
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सर पे विराजे जहां अमर बाबा बर्फानी
फ़िज़ाओं में गूँजे पाँचों नमाज़ की बानी
गड़रियों की टोलियां मदमस्त लहरातीं
धराशायी हुईं खुशियाँ खिलखिलातीं ।
क्षीण -स्वर में बिलख रही है वादी ।।
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फिरोज़ी झील धुंधला बनी कुरूप
रिक्त शिकारों का हुआ भयावह रूप
सैलानी  भयभीत ,राह भूले वादी की
कैसे होगी बसर ,बिसूर रही आबादी ।
क्षीण -स्वर में बिलख रही है वादी ।।
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विध्वंसक बाढ़ ने बाग़-बगीचे उजाड़े
ज़मीन से उठीं, आसमाँ तक़ती दीवारें
पनाह मांगें पुन: ज़मीं की आगोश में
महकी फ़िज़ा को बना गई प्रतिघाती ।
क्षीण -स्वर में बिलख रही है वादी ।।
वीणा विज उदित

2 Responses to “कश्मीर की पीड़ा”

  1. short stories Says:

    कश्मेीर को बहोत खुब हि दर्शाया है!

  2. Veena Says:

    Thanx.

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