अन्तहीन जीवनधारा

पैसों से भरा बैग उठाए बाऊ जी आज क्या तनकर चल रहे हैं | मानो उम्र के बीस साल पीछे छोड़ आए हों | आखीर उनकी छाती चौड़ी क्यों नहीं होगी …?चारों बेटों की शादी होने से घर में चार -चार बहुएं जो आ गई हैं | आज ही चौथी बहू दिव्या की डोली आई है | दिल्ली के फाइव-स्टार होटल में बहुत शानदार शादी हुई है | यह शादी तो पूरे खानदान में एक मिसाल बन गई है | दिव्या के ननिहाल ईरान में विस्थापित हैं | पिता का भी मद्रास में अच्छा-खासा व्यापार है, सो उसी के अनुरूप दहेज भी खूब लाई है | अब तो बाऊजी के पास भी पैसे की कमी नहीं है | उनसे किसी बात में उन्नीस नहीं हैं वो | बहू के चढावे में गहने भी देखने लायक थे | इसीलिए बाऊजी ने बाकि तीनों बहुओं को भी शादी के लिए भारी -भारी सैट बनवा दिए थे | गहनों से लदी व सजी-धजी वीरो के भी खुशी के मारे ज़मीन पर पाँव नहीं टिक रहे हैं |
कभी वो भी दिन थे जवानी में जब —कपड़े के थान के गट्ठर साईकिल पर रख कर धनपत घर-घर जाकर कपड़ा बेचता था | वीरो से ब्याह करते ही उसके पाँवों की पाजेब की झंकार में उसे साक्षात लक्ष्मी के कदम अपने आँगन में गूँजते सुनाई दिए | वीरो बहुत ही कोमल व संवेदनशील थी | इतनी भावप्रवण कि जैसे हाड़ माँस से नहीं , भावनाओं एवम संवेदनाओं से बनी हो | धनपत ने भी गृहलक्ष्मी का सदा आदर किया था | शायद इसी के फलस्वरूप उसके कपड़े वाले सेठ ने उसकी मदद की और अमृतसर में उसकी अपनी दुकान खुल गई | समय के चलते वीरो ने उसे चार-चार बेटों का बाप बनाया | खुशियों का दामन थामे उसका काम चल पड़ा | जब कभी पाँच हजार रुपये इकट्ठे होते , वह ज़मीन का एक टुकड़ा खरीदकर रख लेता | उसके जीवन का सिद्धान्त था…”.इंसान बढते हैं , ज़मीन नहीं बढती” -सो समय आने पर ज़मीन की कीमत बढ़ेगी ,व ज़रूरत पड़ने पर ज़मीन सोना उगलेगी | और हुआ भी यही | पच्चीस बरस में ज़मीन के टुकड़े कई बीघे हो चुके थे | अब , जब चारों बेटे अपने बाऊजी के कंधे से ऊपर निकल चुके थे ; इन्हीं ज़मीन के टुकड़ॉं ने सोना उगलकर बाऊजी का साथ दिया था | अब लारेंस रोड पर कपड़े का एक बहुत बड़ा शो-रूम था- जिसका बहुत नाम था | बाऊजी ने पैसे के साथ-साथ नाम व यश भी कमाया था | ऍसे में इंसान को जीवन सार्थक लगता है |
सबसे बड़े बेटे चंदन और बहू तारा के दो बच्चे हैं | वही इस शोरूम पर बैठता था | व्यापार फैलाने के इरादे से बाऊजी ने एक शाखा लुधियाना में खोली | चंदन सपरिवार लुधियाना भेज दिया गया | दूसरा रिषभ तब तक डाँक्टर बन गया था | उसका विवाह केनेडा के एक जानकार परिवार में हुआ था| वह बीवी के साथ वहीं चला गया था| वीरो से बच्चों की जुदाई सही नहीं जा रही थी | साँझ होते ही जब पंछी नीढ को लौटते , तभी घर के बड़े-बड़े गेट खुलते | कारों से उतरकर भीतर आते कदमों की थाप में वह परदेसी बच्चों के कदमों की थाप की कमी को महसूसती और उदास हो जाती थी | बाऊजी तिस पर उसे समझाते , “भलिए लोके ! उनका अन्न-जल परदेस का लिखा है, तो हम उन्हें घर कैसे रख सकते हैं?”तक़दीर का लेखा मान वह चुपचाप सिर झुका लेती थी |ये बात और थी कि चंदन के पैर लुधियाने में जम नहीं पाए , दो वर्ष की जद्दोजहद के पश्चात वो सपरिवार वापिस घर लौट आया था |
तीसरे बेटे शिवम का विवाह दिल्ली की लड़की जया से हुआ था| शिवम के ससुर की सलाह पर बाऊजी ने उसे दिल्ली में फैन्सी रबर की चप्पल की फैक्टरी लगा दी | अमृतसर में नई कालोनीज़ बन रही थीं | बाऊजी के ज़मीनों के टुकड़े सोना उगल रहे थे | सो पैसों की कोई परवाह नहीं थी | स्वर्णिम भविष्य के सपने संजोये शिवम अपनी पत्नि जया के साथ दिल्ली चला गया | इस बीच मयंक भी बी. काम कर चुका था और शोरूम सँभालने लग गया था | अपनी नई सूझ-बूझ से उसने सेल दुगुनी कर दी थी | बाऊजी फूले नहीं समा रहे थे | चंदन के लुधियाने से वापिस आने पर उसे पुनः उसी शोरूम पर बिठा उन्होंने मयंक के भीतर एक सफल संस्थापक के गुण देखते हुए उस को एक शानदार नया शोरूम खोल दिया था |
डबल-स्टोरी घर में अब ऊपर वाले हिस्से में चंदन सपरिवार रहने लगा था | और चौथी बहू के आ जाने से नीचे ये दोनो मयंक के साथ रह रहे थे | नौकर-चाकर होते हुए भी वीरो ने रोटी व परौंठी सदैव अपने हाथों से सेंक कर बच्चों को खिलाई थी | खिलाते हुए लाड़ किए बिना उसका मन नहीं भरता था | लेकिन वक्त का फेर —अब घर में ऊपर-नीचे अलग चूल्हे जलते थे | बाऊजी जहाँ दूरदर्शी थे , वीरो उतनी ही भावुक थी | वह वराण्डे में बैठी बाहर मैली हुई धूप को देख रही थी , जो पड़ौस की इमारतों पर रेंग रही थी |आज उसमें धूप की चमक ही नहीं थी | इमारतों पर भी अवसन्न सा आलोक फैला था | उदास वीरो अलग- अलग साँसों के बीच बिंधा हुआ चुप्पी का रोना रो रही थी | चिड़िया सी उसने भी अपने आँचल की छाँव में बच्चों का लालन-पालन किया था | बच्चों के बिखरने से उसका संयम टूटता जा रहा था |
व्यापार का चहुँमुखी विस्तार करने के विचार से बाऊजी ने चंदीगढ में पौलीथिन के लिफाफे बनाने की फैक्टरी लगाने के इरादे से इंडस्ट्रीयल एरिया में एक बहुत बड़ा शैड बनवाया ; जो कालान्तर में किराए पर दे दिया गया था | वही अन्त तक उनकी कमाई का विशेष स्त्रोत बना रहा | खैर —कारखाना लगाकर बाऊजी बेहद प्रसन्न थे | वे ईश्वर का धन्यवाद करते थकते नहीं थे | एक रात वे वीरो से गर्व से बोले , ‘भई किस्मत हो तो धनपत राय जैसी |
हम क्या थे? और आज–आज क्या नहीं है हमारे पास ?’ यह सुन वीरो डर गई | बोली, “एजी !ऊँचे बोल न बोलो, कभी -कभी अपनी नज़र ही लग जाती है ” | उन्हें क्या पता था कि वाकई नज़र लग गई थी | होनी उन पर व्यंग से हँस रही थी |खुशी तो यूं भी उम्र के साथ-साथ धीरे-धीरे रिसती रहती है |
अगली दोपहर को स्कूल से आने के पश्चात चंदन के दोनो बच्चे हमेशा की तरह दादी के पास खेलने आए | छोटा बिट्टू जो तीन वर्ष का था वो दादी के पेट पर चढकर धमाचौकड़ी मचा रहा था कि अचानक वह धम्म से दादी की छाती पर गिरा| उसके गिरते ही वीरो के गले से इतनी भयानक चीख़ निकली कि वह दर्द से बेहोश हो गई | पल झपकते ही घर के सब लोग इकट्टे हो गए | अस्पताल ले गए |सारी जाँच-पड़ताल के पश्चात मालूम हुआ कि ब्रैस्ट-कैंसर है–जो अडवांस स्टेज पर है | बाऊजी यह जान कर टूटा गए एकदम | वीरो की भूख मर गई थी और वह हरदम थकी-थक्की सी रहने लग गई थी | चुपचाप कमरे में जाकर लेट जाती थी | बहुओं ने चार दिन पूछा फिर झाँकने भी नहीं आती थीं | बच्चे डर के मारे दरवाजे से झाँककर चले जाते थे कभी-कभी | बड़ी बहू तारा को वीरो बेटी मानती थी ,लेकिन बहू –बहू बेटी नहीं बन सकी | आज उन्हें बेटी न जनने का दारुण दुख हो रहा था |
वीरो को आखीरकार चंदीगढ पी.जी. आई अस्पताल ले जाया गया | आँपरेशन के बाद रेडियोथैरेपी और लगातार कीमोथैरेपी हर महीने | चार कीमोथैरेपी के बाद उसके सिर के सारे बाल झड़ गए थे | सिर पर चुन्नी बाँध दी जाती थी | वीरो के दुःख से सब दुःखी थे | बाऊजी वीरो को तो हिम्मत बँधाते थे , लेकिन स्वयं छिप-छिप कर आँसुओं में दर्द बहाते थे | चंदीगढ में भी एक घर खरीद लिया गया | सभी बेटे सपरिवार माँ के पास बारी-बारी से सेवा करने आते रहे | उधर वीरो दिन प्रति दिन कमज़ोर हो रही थी | काल की विद्रूप हँसी उसे सुनाई दे रही थी | उसने सभी बच्चों को
एकसाथ बुलवा लिया और अपने पास बुलाया | फिर, अपने भरे-पूरे परिवार को एक साथ देख उसकी मूकदृष्टि होठों पर मुस्कुराहट की हल्की रेखा ले आई और पास खड़े बाऊजी को एकटक निहारती वीरो की आँखें सूखे तालाब की तलहटी जैसी निश्चेत हो गईं | नब्ज़ देखी, तो वहाँ सब शान्त था , जीवन-ज्योति बुझ चुकी थी | बाऊजी को बहुत आघात लगा | जीवन के अन्तिम पड़ाव पर पहुँचकर जब दोनो ने अब सुस्ताना था ; तो वीरो उन्हें अकेला छोड़ कर दूर चली गई थी | उनके और बच्चों के बीच माँ का प्यार एक सेतु का काम करता था | वह सेतु अब ढह गया था | पूरा परिवार शोक में डूब गया था | लेकिन धीरे-धीरे सब सपरिवार चले गए, अपनी दिनचर्या में व्यवस्थित होने पर बाऊजी किसी के साथ नहीं गए | मानो वह घर उनके लिए वानप्रस्थे-आश्रम बन गया हो | एकांत में बैठ वे वीरो के साथ बिताए पल , मन में ढेरों तरह की बातचीत के टुकड़े – जो अधूरे शब्द या पूरे वाक्य होते …कभी बनते तो कभी बिगड़ते , दोहराते रहते | वह अन्तिम खुशी जो दोनो ने इकट्टी बाँटी थी !!…वाकई उनको नज़र लग गई थी अपनी ही | खुशी का रिश्ता उम्र के साथ नहीं बल्कि हालात के साथ होता है –वह महसूस रहे थे | क्योंकि हालात वक्त के साथ -साथ बदलते रहते हैं | उनका पुराना नौकर हरिया उनके बुढापे की बैसाखी बन उनके साथ ही रह गया था सदा के लिए |आतीत के साथ घसीट-घसीट के सदा के लिए जीया नहीं जा सकता , इसलिए वे कुछ सँभलने पर अमृतसर लौट आए |
घर पहुँचते ही उन्हें घर की हवा का रुख कुछ बदला सा लगा | सो वे बाज़ार निकल आए | कानों में उड़ती आती बातों में उन्हें अपने बेटों की चर्चा सुनाई पड़ी | चंदन की दुकान पहुँचे तो वहाँ सब नौकर नए दिखे | मयंक के शोरूम पर वही नौकर दिखे | बातों-बातों से वे समझ गए कि ये आपस में ही गाहक तोड़ने में लगे हैं | बच्चों से पूछने की अपेक्षा वे अपने पुराने मित्र प्रकाशचन्द्र के पास ये गोरखधंधा समझने चले गए | यह सुनकर वे बहुत दुःखी हुए कि दोनो भाई एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हो गए हैं | दोनो की पत्नियाँ घर की इज़्ज़त सरे आम उछाल रही हैं | उनमें एक-दूसरे की बुराई करने की होड़ चल रही है | यहाँ तक कि नौकर भी इसी ताक में रहते हैं कि क्या चुग़ली की जाए कि हमें शाबाशी मिले | एक ही घर में ऊपर-नीचे रहते हुए दोनो भऐयों के परिवारों में ‘ईँट कुत्ते में बैर’की कहावत चरितार्थ हो रही थी | बाऊजी ने सब बच्चों को रात को बुलाया व कारण पूछा |
मयंक को गिला था कि जिस शो-रूम पर उसने जी जान से मेहनत की , बाऊजी ने उसे झट चंदन को सौंप दिया | उसे नए सिरे से नए शो-रूम को चलाने के लिए दिन-रात मेहनत करनी पड़ रही है | उसके साथ यह ना इन्साफी की गई थी | इसीलिए उसने पुराने नौकर वहाँ से तोड़ लिए थे | बाऊजी ने समझाना चाहा किन्तु वे सुनने को तैयार नहीं थे | मयंक तो रातों -रात शहर का बड़ा रईस बनना चाहता था | चंदन चुप था लेकिन उसकी पत्नि ‘तारा’ का रोष हर बात में छलकता था | पानी सर से ऊपर निकल चुका था | बाऊजी के लिए यह बहुत बड़ा आघात था | उनके परीचित उन्हें मिलने पर सहानुभूति जताते | वीरो के जाने के दुःख को सहते संतप्त हृदय को इस चोट ने छलनी कर दिया | मयंक ने साथ वाली खाली पड़ी बिल्डिंग को खरीदकर और बड़ा शो-रूम बना लिया था , जिससे बड़े भाई को नीचा दिखा सके | सौ के करीब नौकर भी रख लिये | इतनी जल्दी …इतना पैसा कहाँ से आया ? इस विषय पर उसने चुप्पी रखी थी |अपने जुड़वा बेटों के नाम पर शोरूम का नाम रख लिया था “विपुलविराट एंटरप्राइज़ेस” |सगे भाई के साथ दुश्मनी–लेकिन अपने बेटों के नाम भी जुड़े रहें | वाह री समझ…! अब इसे बाऊजी क्या कहें ?
इस नए घटनाक्रम से उनका मन खिन्न हो गया | किसी ने एक बार भी बाऊजी के पास बैठ कर न उनका हाल पूछा और न ही माँ को याद किया | यह भी नहीं कहा कि अब वे माँ के बिन वहाँ न रहें बल्कि उनके साथ ही रहे | अपनी सोच पर उनको तरस आ गया | वे समझ गए थे कि इन ‘तिलों में तेल नहीं है |’किसी तरह दो महीने वहाँ बिता कर उन्होंने सारे काम निपटाए और अपनी ज़िन्दगी की किताब से इन दोनो के नाम के पन्ने फाड़ कर हताश हो दोनो की नैय्या को सागर में डोलते देखकर भी ईश्वर के सहारे छोड़कर वापिस चंदीगढ लौट आए थ |
वे अपना बाकि जीवन कैसे बिताएं …यह समस्या मुँहबाए उनके समक्ष थी |खैर—अभी तो वे दिल्ली शिवम के पास चले आए और उसे दोनो भाइयों का कारनामा सुनाया | सुनकर उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई |वह भी परेशान कि यह कैसे हो गया क्योंकि वो बहुत शान्त प्रकृति का था |उसे न किसी से कभी कोई होड़ थी और न ही कोई गिला | उसका काम कुछ ठीक नहीं था | वह किराए के घर में चैन से रहता था |बाऊजी ने उसे रोहिणी में एक फ्लैट खरीद दिया |सोचा कि इसके प्रति भी कर्तव्य निभा दूँ | और बेहद संतुष्ट हो कुछ दिनो बाद वापिस चंदीगढ –अपने वानप्रस्थ जीवन
को जीने आ गए |
रिषभ और कल्याणी से केनेडा बात होती ही रहती थी | माँ के जाने के पश्चात रिषभ बाऊजी को साथ ले जाना चाहता था किन्तु तब संभव नहीम हो सका था |अब बाऊजी ने तीन महीने का वीज़ा लगवाया और जा पहुँचे उसके पास | कल्याणी काम पर नहीं जाती थी क्योकि कमाई अच्छी थी |वह बाऊजी को प्यार से खिलाती और काम निपटा कर उनके पास बैठकर उनका अतीत कुरेदती रहती जिससे उनका मन लगा रहता था |बेटे को भी गायत्री- मंत्र सिखाया हुआ था उसने |घर में भारतीय सभ्यता का प्रभाव था | रिषभ भी अस्पताल से आ ,उनसे बातें करता व उनको हँसाने का यत्न करता था | जिससे बाऊजी के मुखौटे पर एक उदास हँसी छा जाती जो एक खाली जगह से उठकर दूसरी खाली जगह पर खत्म हो जाती है और….बीच की जगह को भी खाली छोड़ जाती है | वे यहाँ कुछ चैन पा सके थे | रिषभ व कल्याणी भी उन्हें सदा के लिए वहीं रखना चाहते थे | लेकिन अपना देश अपनी मिट्टी का मोह वे नहीं त्याग सके और तीन महीनों में काफी हल्के हो भारत लौट आए |
चंदीगढ पहुँचने पर हरिया ने बताया कि उनके मित्र प्रकाशजी और चंदन भैया का बहुत ज़रूरी फोन आया था कि पहुँचते ही बात करवाना | उन्होंने उसी समय चंदन को फोन लगाया ,जिसे सुनते ही उनका माथा चकरा गया |वे धम्म से पास रखी कुर्सी पर बैठ गए | हरिया ने उन्हें सँभाला व पीने को पानी दिया |उसने बताया कि मयंक बीवी बच्चों समेत शहर से गायब है |असल में उसने सारा व्यापार और शान-शौकत उधारी की बना रखी थी | कर्ज़ा वसूलने वाले स्वयं आकर शोरूम से अपना बचा-खुचा सामान उठा रहे थे | प्रकाश भाई ने यह भी बताया–चूँकि दोनो भाईयों की दुश्मनी सर्वचर्चित थी ,चंदन से कोई उधार चुकाने को नहीं कह रहा था |घर भी मयंक के नाम नहीं है , सो वो भी बच गया था | सब कुछ जान कर बाऊजी एक असह्य जानलेवा दर्द से कराह उठे थे | अपने महत्वाकांक्षी एव ऊँची उड़ान भरने वाले बेटे की मजबूरी की कल्पना कर पाने में वे अपने को असमर्थ पा रहे थे |अपने सामर्थ्य के अनुरूप बाऊजी ने उसे सब जगह ढूंढा, पर कोई सुराग न पाकर वे ईश्वर के भरोसे चुप बैठ गए |
वे हरदम यही सोचते कि मयंक ने उनसे कोई बात क्यों नहीं की | विदेश जाना उन्हें बहुत भारी पड़ा था | वे समर्थ थे सब सँभाल लेते | आखीर उनकी साख कब काम आनी थी ? उसने तो उनका नाम और यश मिट्टी में मिला दिया था | भीतर उठते-गिरते अंधड़ सही वक्त की इंतज़ार में टिकने का यत्न करने लगे थे | ( यह बात और है कि ऍसा सही -वक्त कभी आया ही नहीं |)
विविध आयामों को लाँघता जीवन का लम्बा कालखण्ड औलादों के फेर में बीत गया था | बार -बार की टूटन से उनका स्वास्थय बिगड़ रहा था ,उस पर एकाकीपन घुन की तरह चाट रहा था उन्हें | वे परिवार की जिम्मेवारियों से मुक्त लेकिन जीवन से साँस रहते तक जुड़े रहना चाहते थे | रिषभ के आग्रह पर वो एक दिन पी.जी.आई अस्पताल डा. को दिखाने चले गए | वहाँ ओ.पी.डी में बैठे ढेरों मरीजों को देख कर उनके अन्तस में वीरो को याद करके ऍसा विचार कौंधा कि अन्तर्मन में एक प्रकाश छा गया | उन्हें साँस रहते तक जीवन से जुड़े रहने की एक राह ,एक सबब मिल गया था |वो अब किसी रिश्ते को ढोने के लिए मजबूर नहीं थे | वे उसी पल ड्यूटी डा. के पास गए| उन्होंने कैंसर के दो ग़रीब मरीजों का सारा खर्च वहन करने की जिम्मेवारी लेने की इच्छा जताई | इस पर उन्हें पहला मरीज हालात की मारी एक लड़की मिली–जिसे शादी होने के बाद कैंसर का रोग पता चलने पर ससुराल से सदा के लिए ग़रीब मायके वालों के पास भेज दिया गया था | दूसरा मरीज था एक जवान लड़का हरीश— जिसे ब्लड कैंसर था | हाँस्पिटल अथाँरिटीस से बात करके उन दोनो के गार्जियन का फाँर्म भर कर बाऊजी ने उन दोनो परिवारों को अपना परिचय व घर का पता आदि दिए और पेमेंट कर दी | जो मौत की छाया सर पर मँडराते देख रो रहे थे , वे ईश्वर के भेजे बंदे को आए देख उसके पैरों पर गिर गए | बाऊजी के पैर आँसुओं से धुल रहे थे | उन्होंने उन दोनो बच्चों को भरी आँखों से सीने से लगा लिया |
अपने खून के रिश्तों से मिले दर्द से दुःखी व नैराश्य की नैया में डोलते बाऊजी को मानवता के दर्द को बाँटने का मल्हम लगने व दूसरों की खुशी का कारण बनने से चैन मिल रहा था | अब वे साँस रहते तक जीवन से जुड़े रहकर पराई पीड़ा को बाँटते रहेगें |उन्होंने एक ट्र्स्ट बना दी जिससे उनके धन से दो कैंसर के मरीजों के इलाज की’ अंतहीन जीवन धारा’ सदैव अबाध गति से बहती रहे……|

वीणा विज ‘उदित’

One Response to “अन्तहीन जीवनधारा”

  1. teenu tiwarj Says:

    Waaw fantastic…

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